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जो भी मिल जाता है घर-बार को दे देता हूँ - अख़्तर नज़्मी कविता - Darsaal

जो भी मिल जाता है घर-बार को दे देता हूँ

जो भी मिल जाता है घर-बार को दे देता हूँ

या किसी और तलबगार को दे देता हूँ

धूप को देता हूँ तन अपना झुलसने के लिए

और साया किसी दीवार को दे देता हूँ

जो दुआ अपने लिए माँगनी होती है मुझे

वो दुआ भी किसी ग़म-ख़्वार को दे देता हूँ

मुतमइन अब भी अगर कोई नहीं है न सही

हक़ तो मैं पहले ही हक़दार को दे देता हूँ

जब भी लिखता हूँ मैं अफ़साना यही होता है

अपना सब कुछ किसी किरदार को दे देता हूँ

ख़ुद को कर देता हूँ काग़ज़ के हवाले अक्सर

अपना चेहरा कभी अख़बार को देता हूँ

मेरी दूकान की चीज़ें नहीं बिकती 'नज़मी'

इतनी तफ़्सील ख़रीदार को दे देता हूँ

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