Love Poetry of Akhtar Muslimi
नाम | अख़तर मुस्लिमी |
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अंग्रेज़ी नाम | Akhtar Muslimi |
उस को भड़काऊ न दामन की हवाएँ दे कर
रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
मिरे दिल पे हाथ रख कर मुझे देने वाले तस्कीं
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
नाले मिरे जब तक मिरे काम आते रहेंगे
न समझ सकी जो दुनिया ये ज़बान-ए-बे-ज़बानी
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
किस को कहते हैं जफ़ा क्या है वफ़ा याद नहीं
कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है
दिल ही रह-ए-तलब में न खोना पड़ा मुझे
दरिया नज़र न आए न सहरा दिखाई दे
आँसुओं के तूफ़ाँ में बिजलियाँ दबी रखना