तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
पिए बग़ैर ही हम पाँव लड़खड़ा के चले
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फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
अश्क वो है जो रहे आँख में गौहर बन कर
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
मेरे किरदार में मुज़्मर है तुम्हारा किरदार
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
न समझ सकी जो दुनिया ये ज़बान-ए-बे-ज़बानी
दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
कुछ इस तरह के बहारों ने गुल खिलाए हैं
तुम अपनी ज़बाँ ख़ाली कर के ऐ नुक्ता-वरो पछताओगे