सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोले
और भी कोई फ़साना है तुम्हें याद कि बस
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मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
न समझ सकी जो दुनिया ये ज़बान-ए-बे-ज़बानी
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
आँसुओं के तूफ़ाँ में बिजलियाँ दबी रखना
रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
नाले मिरे जब तक मिरे काम आते रहेंगे
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
जो बा-ख़बर थे वो देते रहे फ़रेब मुझे
एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
दिल ही रह-ए-तलब में न खोना पड़ा मुझे