मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
है जिगर चाक मगर लब पे हँसी है ऐ दोस्त
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सब्र-ओ-क़रार-ए-दिल मिरे जाने कहाँ चले गए
किस को कहते हैं जफ़ा क्या है वफ़ा याद नहीं
कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है
जो बा-ख़बर थे वो देते रहे फ़रेब मुझे
एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी ऐ गर्दिश-ए-ज़माना
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
मिरे दिल पे हाथ रख कर मुझे देने वाले तस्कीं
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
शिकवा इस का तो नहीं है जो करम छोड़ दिया
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ