इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो
देते हो सज़ा और ख़ता और ही कुछ है
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कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है
रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी ऐ गर्दिश-ए-ज़माना
मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
नाले मिरे जब तक मिरे काम आते रहेंगे
सब्र-ओ-क़रार-ए-दिल मिरे जाने कहाँ चले गए
तुम अपनी ज़बाँ ख़ाली कर के ऐ नुक्ता-वरो पछताओगे
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले