फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
तुम आ चुके हो मगर इंतिज़ार बाक़ी है
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इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
दरिया नज़र न आए न सहरा दिखाई दे
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
तुम अपनी ज़बाँ ख़ाली कर के ऐ नुक्ता-वरो पछताओगे
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
उस को भड़काऊ न दामन की हवाएँ दे कर
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं