दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
कुछ बे-क़ुसूर लोग सज़ा माँगने लगे
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अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी ऐ गर्दिश-ए-ज़माना
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
दरिया नज़र न आए न सहरा दिखाई दे
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
आँसुओं के तूफ़ाँ में बिजलियाँ दबी रखना
एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे