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कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है - अख़तर मुस्लिमी कविता - Darsaal

कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है

कहाँ जाएँ छोड़ के हम उसे कोई और उस के सिवा भी है

वही दर्द-ए-दिल भी है दोस्तो वही दर्द-ए-दिल की दवा भी है

मिरी कश्ती लाख भँवर में है न करूँगा मैं तिरी मिन्नतें

ये पता नहीं तुझे नाख़ुदा मिरे साथ मेरा ख़ुदा भी है

ये अदा भी उस की अजीब है कि बढ़ा के हौसला-ए-नज़र

मुझे इज़्न-ए-दीद दिया भी है मिरे देखने पे ख़फ़ा भी है

मिरी सम्त महफ़िल-ए-ग़ैर में वो अदा-ए-नाज़ से देखना

जो ख़ता-ए-इश्क़ की है सज़ा तो मिरी वफ़ा का सिला भी है

जो हुजूम-ए-ग़म से है आँख नम तो लबों पे नाले हैं दम-ब-दम

उसे किस तरह से छुपाएँ हम कहीं राज़-ए-इश्क़ छुपा भी है

ये बजा कि 'अख़्तर'-ए-मुस्लिमी है ज़माने भर से बुरा मगर

उसे देखिए जो ख़ुलूस से तो भलों में एक भला भी है

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