अख़तर मुस्लिमी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अख़तर मुस्लिमी
नाम | अख़तर मुस्लिमी |
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अंग्रेज़ी नाम | Akhtar Muslimi |
वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
उस को भड़काऊ न दामन की हवाएँ दे कर
तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ
सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोले
सब्र-ओ-क़रार-ए-दिल मिरे जाने कहाँ चले गए
रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
मेरे किरदार में मुज़्मर है तुम्हारा किरदार
मिरे दिल पे हाथ रख कर मुझे देने वाले तस्कीं
लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
कुछ इस तरह के बहारों ने गुल खिलाए हैं
ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
जो बा-ख़बर थे वो देते रहे फ़रेब मुझे
इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो
हर शाख़-ए-चमन है अफ़्सुर्दा हर फूल का चेहरा पज़मुर्दा
हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
अश्क वो है जो रहे आँख में गौहर बन कर
अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी ऐ गर्दिश-ए-ज़माना
तुम अपनी ज़बाँ ख़ाली कर के ऐ नुक्ता-वरो पछताओगे
शिकवा इस का तो नहीं है जो करम छोड़ दिया
नाले मिरे जब तक मिरे काम आते रहेंगे
न समझ सकी जो दुनिया ये ज़बान-ए-बे-ज़बानी
माइल-ए-लुत्फ़ है आमादा-ए-बे-दाद भी है
किस को कहते हैं जफ़ा क्या है वफ़ा याद नहीं