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दिल वो प्यासा है कि दरिया का तमाशा देखे - अख़तर इमाम रिज़वी कविता - Darsaal

दिल वो प्यासा है कि दरिया का तमाशा देखे

दिल वो प्यासा है कि दरिया का तमाशा देखे

और फिर लहर न देखे कफ़-ए-दरिया देखे

मैं हर इक हाल में था गर्दिश-ए-दौराँ का अमीं

जिस ने दुनिया नहीं देखी मिरा चेहरा देखे

अब भी आती है तिरी याद प इस कर्ब के साथ

टूटती नींद में जैसे कोई सपना देखे

रंग की आँच में जलता हुआ ख़ुश्बू का बदन

आँख उस फूल की तस्वीर में क्या क्या देखे

कोई चोटी नहीं अब तो मिरे क़द से आगे

ये ज़माना तो अभी और भी ऊँचा देखे

फिर वही धुँद में लिपटा हुआ पैकर होगा

कौन बे-कार में उठता हुआ पर्दा देखे

एक एहसास-ए-नदामत से लरज़ उठता हूँ

जब रम-ए-मौज मिरी वुसअ'त-ए-सहरा देखे

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