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मक़्तल की बाज़दीद - अख़्तर हुसैन जाफ़री कविता - Darsaal

मक़्तल की बाज़दीद

बला की प्यास उस की आँख में है

हिजाज़ की सरज़मीं पे इस साल इस क़दर बारिशें हुई हैं कि ख़ुश्क तालाब

ख़ून-ए-नाहक़ से भर गए हैं

लहू की प्यास उस की आँख में है

नफ़स में बारूद जिस की क़ातिल सदा का शोला

क़दम क़दम तहनियत के रस्ते रवाँ हुआ तो वो नख़्ल जिस की जड़ें ज़मीनों के

दर्द में थीं

झुका कुछ ऐसे कि जैसे हाल-ए-रुकू'अ में हो

उदास ताइर जो शाख़ पर थे

जो गुम्बदों की पनाह में थे

जो जालियों के तवाफ़ में थे

डरे हुए आसमान-ए-हिजरत की टहनियों से

नशेब में उस ज़मीन-ए-मक़्तल को देखते हैं

जहाँ वो नख़्ल इस तरह गिरा है कि जैसे हाल-ए-सुजूद में हो

इक और तालाब ताज़ा बारिश से भर गया है

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