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इम्तिनाअ का महीना - अख़्तर हुसैन जाफ़री कविता - Darsaal

इम्तिनाअ का महीना

इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, पेड़ कटते न थे तीर बिकते न थे

बे-ख़तर थी ज़मीं मुस्तक़र के लिए

इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, ये पुराने सहीफ़ों में मज़कूर है

क़ातिलों, रहज़नों में ये दस्तूर था, इस महीनों की हुर्मत के एज़ाज़ में

दोश पर गर्दन-ए-ख़म सलामत रहे

कर्बलाओं में उतरे हुए कारवानों की मश्कों का पानी अमानत रहे

मेरी तक़्वीम में भी महीना है ये

इस महीने कई तिश्ना-लब साअतें, बे-गुनाही के कतबे उठाए हुए

रोज़ ओ शब बैन करती हैं दहलीज़ पर और ज़ंजीर-ए-दर मुझ से खुलती नहीं

फ़र्श-ए-हमवार पर पाँव चलता नहीं

दिल धड़कता नहीं

इस महीने मैं घर से निकलता नहीं

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