Love Poetry of Akhtar Hoshiyarpuri
नाम | अख़्तर होशियारपुरी |
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अंग्रेज़ी नाम | Akhtar Hoshiyarpuri |
जन्म की तारीख | 1918 |
मौत की तिथि | 2007 |
जन्म स्थान | Rawalpindi |
गुज़रते वक़्त ने क्या क्या न चारा-साज़ी की
'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक
यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई
वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई
वो रतजगा था कि अफ़्सून-ए-ख़्वाब तारी था
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी
उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं
तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है
तूफ़ाँ से क़र्या क़र्या एक हुए
तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-बे-दर किसी पे वा न हुआ
थी तितलियों के तआ'क़ुब में ज़िंदगी मेरी
था एक साया सा पीछे पीछे जो मुड़ के देखा तो कुछ नहीं था
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
शायान-ए-ज़िंदगी न थे हम मो'तबर न थे
शाम तन्हाई धुआँ उठता बराबर देखते
शाख़ों पे ज़ख़्म हैं कि शगूफ़े खिले हुए
रुख़्सत-ए-रक़्स भी है पाँव में ज़ंजीर भी है
क़र्या-ए-जाँ से गुज़र कर हम ने ये देखा भी है
पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे
मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ
मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
मैं ने यूँ देखा उसे जैसे कभी देखा न था
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ
क्या पूछते हो मुझ से कि मैं किस नगर का था
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से
किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया