ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक
हमें देखो कि अपने आप को ओढ़े हुए हैं
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फिर ये हुआ कि लोग दरीचों से हट गए
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
दिल में इक जज़्बा-ए-बेदाद-ओ-जफ़ा ही होगा
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो
क्या लोग हैं कि दिल की गिरह खोलते नहीं
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से
वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए