वो शायद कोई सच्ची बात कह दे
उसे फिर बद-गुमाँ करना पड़ा है
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शाख़ों पे ज़ख़्म हैं कि शगूफ़े खिले हुए
अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना
वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी
दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो
तूफ़ाँ से क़र्या क़र्या एक हुए
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई
हर्फ़-ए-बे-आवाज़ से दहका हुआ
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ
दिल में इक जज़्बा-ए-बेदाद-ओ-जफ़ा ही होगा