वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
कि सच ही बोलता था जब भी बोलता था बहुत
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होंटों पे क़र्ज़-ए-हर्फ़-ए-वफ़ा उम्र भर रहा
धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
मिरी गली के मकीं ये मिरे रफ़ीक़-ए-सफ़र
तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है
बजा कि दुश्मन-ए-जाँ शहर-ए-जाँ के बाहर है
मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
शाख़ों पे ज़ख़्म हैं कि शगूफ़े खिले हुए
चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल में आईने जड़े हैं
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या