मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
न जाने फिर कहाँ आवाज़ खो गई मेरी
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मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ
अपने क़दमों ही की आवाज़ से चौंका होता
मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए
ज़मीन पर ही रहे आसमाँ के होते हुए
बारहा ठिठका हूँ ख़ुद भी अपना साया देख कर
इक नूर था कि पिछले पहर हम-सफ़र हुआ
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
क़र्या-ए-जाँ से गुज़र कर हम ने ये देखा भी है
चमन के रंग-ओ-बू ने इस क़दर धोका दिया मुझ को
था एक साया सा पीछे पीछे जो मुड़ के देखा तो कुछ नहीं था
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ