लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
अपनी आँखों को झुकाए रखना
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वो कम-सुख़न था मगर ऐसा कम-सुख़न भी न था
ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या
हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है
इक नूर था कि पिछले पहर हम-सफ़र हुआ
क़र्या-ए-जाँ से गुज़र कर हम ने ये देखा भी है
थी तितलियों के तआ'क़ुब में ज़िंदगी मेरी
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
कुछ नक़्श हुवैदा हैं ख़यालों की डगर से
उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं
दश्त-दर-दश्त अक्स-ए-दर है यहाँ
मैं ने जो ख़्वाब अभी देखा नहीं है 'अख़्तर'