कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
वर्ना जो मेरा दुख था वो दुख उम्र भर का था
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मैं ने यूँ देखा उसे जैसे कभी देखा न था
इक नूर था कि पिछले पहर हम-सफ़र हुआ
आग चूल्हे की बुझी जाती है
दिल में इक जज़्बा-ए-बेदाद-ओ-जफ़ा ही होगा
वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई
क्या लोग हैं कि दिल की गिरह खोलते नहीं
अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना
वो जो दीवार-ए-आश्नाई थी
ज़मीन पर ही रहे आसमाँ के होते हुए
न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा
ये सरगुज़िश्त-ए-ज़माना ये दास्तान-ए-हयात
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ