कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
इक उम्र से मैं अपने ही साए में खड़ा हूँ
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ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक
मिरी निगाह का पैग़ाम बे-सदा जो हुआ
किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है
न जाने लोग ठहरते हैं वक़्त-ए-शाम कहाँ
तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए
कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
रुख़्सत-ए-रक़्स भी है पाँव में ज़ंजीर भी है
वो रतजगा था कि अफ़्सून-ए-ख़्वाब तारी था
मिरी गली के मकीं ये मिरे रफ़ीक़-ए-सफ़र