हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था
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मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया
मैं हर्फ़ देखूँ कि रौशनी का निसाब देखूँ
आग चूल्हे की बुझी जाती है
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या
ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया
मैं अपनी ज़ात की तशरीह करता फिरता था
हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है
हम अक्सर तीरगी में अपने पीछे छुप गए हैं
दर्द की दौलत-ए-नायाब को रुस्वा न करो
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
था एक साया सा पीछे पीछे जो मुड़ के देखा तो कुछ नहीं था
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर