हमें ख़बर है कोई हम-सफ़र न था फिर भी
यक़ीं की मंज़िलें तय कीं गुमाँ के होते हुए
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हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं
मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या
लोग नज़रों को भी पढ़ लेते हैं
बारहा ठिठका हूँ ख़ुद भी अपना साया देख कर
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है
तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए
वो रंग-ए-तमन्ना है कि सद-रंग हुआ हूँ
कब धूप चली शाम ढली किस को ख़बर है
आँधी में चराग़ जल रहे हैं
चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल में आईने जड़े हैं
तिलिस्म-ए-गुम्बद-ए-बे-दर किसी पे वा न हुआ