धूप की गरमी से ईंटें पक गईं फल पक गए
इक हमारा जिस्म था अख़्तर जो कच्चा रह गया
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किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था
फिर ये हुआ कि लोग दरीचों से हट गए
था एक साया सा पीछे पीछे जो मुड़ के देखा तो कुछ नहीं था
कच्चे मकान जितने थे बारिश में बह गए
पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे
मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया
ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया
शिकारी रात भर बैठे रहे ऊँची मचानों पर
न जाने लोग ठहरते हैं वक़्त-ए-शाम कहाँ
वो शायद कोई सच्ची बात कह दे
वो ज़िंदगी है उस को ख़फ़ा क्या करे कोई
यक-ब-यक मौसम की तब्दीली क़यामत ढा गई