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उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं

उफ़ुक़ उफ़ुक़ नए सूरज निकलते रहते हैं

दिए जलें न जलें दाग़ जलते रहते हैं

मिरी गली के मकीं ये मिरे रफ़ीक़-ए-सफ़र

ये लोग वो हैं जो चेहरे बदलते रहते हैं

ज़माने को तो हमेशा सफ़र में रहना है

जो क़ाफ़िले न चलें रस्ते चलते रहते हैं

हज़ार संग-ए-गिराँ हो हज़ार जब्र-ए-ज़माँ

मगर हयात के चश्मे उबलते रहते हैं

ये और बात कि हम में ही सब्र-ओ-ज़ब्त नहीं

ये और बात कि लम्हात टलते रहते हैं

ये वक़्त-ए-शाम है या रब दिल ओ नज़र की हो ख़ैर

कि इस समय में तो साए भी ढलते रहते हैं

कभी वो दिन थे ज़माने से आश्नाई थी

और आईने से अब 'अख़्तर' बहलते रहते हैं

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