तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है

तूफ़ान-ए-अब्र-ओ-बाद से हर-सू नमी भी है

पेड़ों के टूटने का समाँ दीदनी भी है

अर्ज़ां है अपने शहर में पानी की तरह ख़ूँ

वर्ना वफ़ा का ख़ून बड़ा क़ीमती भी है

यारो शगुफ़्त-ए-गुल की सदा पर चले चलो

दश्त-ए-जुनूँ के मोड़ पे कुछ रौशनी भी है

टूटे हुए मकाँ हैं मगर चाँद से मकीं

इस शहर-ए-आरज़ू में इक ऐसी गली भी है

बेगाना-वार गुज़री चली जा रही है ज़ीस्त

मुड़ मुड़ के दोस्तों की तरह देखती भी है

'अख़्तर' गुज़रते लम्हों की आहट पे यूँ न चौंक

इस मातमी जुलूस में इक ज़िंदगी भी है

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