शाख़ों पे ज़ख़्म हैं कि शगूफ़े खिले हुए
शाख़ों पे ज़ख़्म हैं कि शगूफ़े खिले हुए
अब के फ़रोग़-ए-गुल के अजब सिलसिले हुए
ख़ुर्शीद का जमाल किसे हो सका नसीब
तारों के डूबते ही रवाँ क़ाफ़िले हुए
अपना ही ध्यान और कहीं था नज़र कहीं
वर्ना थे राह में गुल-ओ-ग़ुंचे खिले हुए
तुम मुतमइन रहो कि न देखें न कुछ कहें
आँखों के साथ साथ हैं लब भी सिले हुए
माना किसी का दर्द ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं
फिर भी किसी के दर्द से क्या क्या गिले हुए
जो साँस आ के मस हुए वो मंज़िलें नहीं
लम्हे जो हम पे बीत गए फ़ासले हुए
'अख़्तर' मुझे ये डर है कि दामन न जल उठे
पाता हूँ आँसुओं में शरारे मिले हुए
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