फिर ये हुआ कि लोग दरीचों से हट गए

फिर ये हुआ कि लोग दरीचों से हट गए

लेकिन वो गर्द थी कि दर-ओ-बाम अट गए

कुछ लोग झाँकने लगे दीवार-ए-शहर से

कुछ लोग अपने ख़ून के अंदर सिमट गए

वो पेड़ तो नहीं था कि अपनी जगह रहे

हम शाख़ तो नहीं थे मगर फिर भी कट गए

पुर-हौल जंगलों में हवा चीख़ती फिरी

वापस घरों को क्यूँ न मुसाफ़िर पलट गए

इतने तो रास्ते में भी साए नहीं मिले

जितने कि लोग आए और आ कर पलट गए

मिट्टी के इन चराग़ों की हिम्मत तो देखिए

जो जाते जाते शब की सफ़ों को उलट गए

जब हम से अपनी ज़ात का पत्थर न उठ सका

'अख़्तर' हम आइने के मुक़ाबिल ही डट गए

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