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पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे

पहले तो सोच के दोज़ख़ में जलाता है मुझे

फिर वो शीशे में मिरा चेहरा दिखाता है मुझे

शायद अपना ही तआक़ुब है मुझे सदियों से

शायद अपना ही तसव्वुर लिए जाता है मुझे

बाहर आवाज़ों का इक मेला लगा है देखो

कोई अंदर से मगर तोड़ता जाता है मुझे

यही लम्हा है कि मैं गिर के शिकस्ता हो जाऊँ

सूरत-ए-शीशा वो हाथों में उठाता है मुझे

जिस्म मिनजुमला-ए-आशोब-ए-क़यामत ठहरा

देखूँ कौन आ के क़यामत से बचाता है मुझे

ज़लज़ला आया तो दीवारों में दब जाऊँगा

लोग भी कहते हैं ये घर भी डराता है मुझे

कितना ज़ालिम है मिरी ज़ात का पैकर 'अख़्तर'

अपनी ही साँस की सूली पे चढ़ाता है मुझे

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