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न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा

न जब कोई शरीक-ए-ज़ात होगा

मिरा हम-ज़ाद मेरे साथ होगा

घरों के बंद दरवाज़ों में रौशन

वही इक ज़ख़्म-ए-एहसासात होगा

न यूँ दहलीज़ तक आओ कि बाहर

गली में फ़ितना-ए-ज़र्रात होगा

कुरेदे जाओ यूँ ही राख दिल की

कहीं तो शो'ला-ए-जज़्बात होगा

दरीचे यूँ तो खुल सकते नहीं थे

हवाओं में किसी का हात होगा

किताबों में मिलेंगे शेर मेरे

मिरा ग़म रौनक़-ए-सफ़्हात होगा

यही दिन में ढलेगी रात 'अख़्तर'

यही दिन का उजाला रात होगा

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