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मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया

मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया

सूरज की रौशनी ने बड़ा काम कर दिया

हाथों पे मेरे अपने लहू का निशान था

लोगों ने उस के क़त्ल का इल्ज़ाम धर दिया

गंदुम का बीज पानी की छागल और इक चराग़

जब मैं चला तो उस ने ये ज़ाद-ए-सफ़र दिया

जागा तो माहताब की कुंजी सिरहाने थी

मैं ख़्वाब में था जब मुझे रौशन नगर दिया

उस को तो उस के शहर ने कुछ भी दिया नहीं

और उस ने फिर भी शहर को तोहफ़े में सर दिया

मेरा बदन तो रद्द-ए-अमल में ख़मोश था

मेरी ज़बाँ ने ज़ाइक़ा-ए-ख़ुश्क-ओ-तर दिया

वो हर्फ़-आशना है मुझे ये गुमाँ न था

उस ने तो सब को नक़्श-ब-दीवार कर दिया

यूँ भी तो उस ने हौसला-अफ़ज़ाई की मिरी

हर्फ़-ए-सुख़न के साथ ही ज़ख़्म-ए-हुनर दिया

अख़्तर यही नहीं कि मुझे बाल-ओ-पर मिले

उस ने तो उम्र भर मुझे एहसास-ए-पर दिया

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