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मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या

मैं उस का नाम घुले पानियों पे लिखता क्या

वो एक मौज-ए-रवाँ है कहीं पे रुकता क्या

तमाम हर्फ़ मिरे लब पे आ के जम से गए

न जाने मैं कहा क्या और उस ने समझा क्या

सभों को अपनी ग़रज़ थी सभों को अपनी बक़ा

मिरे लिए मिरे नज़दीक कोई आता क्या

उभरता चाँद मिरा हम-सफ़र था दरिया में

मैं डूबते हुए सूरज को मुड़ के तकता क्या

परिंदे घर की मुंडेरों पे आ के बैठ गए

मैं अजनबी था इशारा कोई समझता क्या

फ़िराक़ ओ वस्ल तो तस्वीरें उन के नाम की हैं

मैं इन में रंग किसी के लहू से भरता क्या

मैं अपने घर में नहीं था मगर कहीं भी न था

उधर से मुझ को गुज़रते किसी ने देखा क्या

तमाम शहर रवाँ है मिरे तआक़ुब में

मैं आप क्या मिरे घर की तरफ़ को रस्ता क्या

ये रौशनी कभी पहले न थी यहाँ 'अख़्तर'

सितारा रात की पलकों पे कोई चमका क्या

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