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होंटों पे क़र्ज़-ए-हर्फ़-ए-वफ़ा उम्र भर रहा - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

होंटों पे क़र्ज़-ए-हर्फ़-ए-वफ़ा उम्र भर रहा

होंटों पे क़र्ज़-ए-हर्फ़-ए-वफ़ा उम्र भर रहा

मक़रूज़ था सो चुप की सदा उम्र भर रहा

कुछ दरगुज़र की उन को भी आदत न थी कभी

कुछ मैं भी अपनी ज़िद पे उड़ा उम्र भर रहा

वो तजरबे हुए कि मिरे ख़ूँ की ख़ैर हो

यारो मैं अपने घर से जुदा उम्र भर रहा

मौसम का हब्स शब की सियाही फ़सील-ए-शहर

मुजरिम था सर झुकाए खड़ा उम्र भर रहा

सुब्ह ओ मसा की गर्दिश-ए-पैहम के बावजूद

मैं दरमियान-ए-सुब्ह-ओ-मसा उम्र भर रहा

इन बारिशों में कौन बहे ख़ार-ओ-ख़स के साथ

सूरज की ले के सर पे रिदा उम्र भर रहा

हाथों से ओट की तो सभी उँगलियाँ जलीं

फिर भी हवा की ज़द पे दिया उम्र भर रहा

इक ख़ून की ख़लीज मिरे सामने रही

और मेरे पीछे साया मिरा उम्र भर रहा

'अख़्तर' ये जंगलों में उसी के निशान हैं

जो ख़ार ख़ार आबला-पा उम्र भर रहा

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