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हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है

हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है

ज़मीं को आसमाँ करना पड़ा है

निकल कर आ गए हैं जंगलों में

मकाँ को ला-मकाँ करना पड़ा है

सवा नेज़े पे सूरज आ गया था

लहू को साएबाँ करना पड़ा है

बहुत तारीक थीं हस्ती की राहें

बदन को कहकशाँ करना पड़ा है

किसे मालूम लम्स उन उँगलियों का

हवा को राज़-दाँ करना पड़ा है

वो शायद कोई सच्ची बात कह दे

उसे फिर बद-गुमाँ करना पड़ा है

मैं अपने सारे पत्ते फ़ाश करता

मगर ऐसा कहाँ करना पड़ा है

सफ़र आसाँ नहीं हरफ़ ओ क़लम का

हमें तय हफ़्त-ख़्वाँ करना पड़ा है

था जिस से इख़्तिलाफ़-ए-राय मुमकिन

उसी को मेहरबाँ करना पड़ा है

सफ़-ए-आदा में अपने बाज़ुओं को

मुझे 'अख़्तर' कमाँ करना पड़ा है

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