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हर्फ़-ए-बे-आवाज़ से दहका हुआ - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

हर्फ़-ए-बे-आवाज़ से दहका हुआ

हर्फ़-ए-बे-आवाज़ से दहका हुआ

इक दिया हूँ ताक़ में जलता हुआ

इस तरफ़ दीवार के भी मैं ही था

उस तरफ़ भी मैं ही था बैठा हुआ

आँगनों में फूल थे महके हुए

खिड़कियों में चाँद था ठहरा हुआ

कोरे काग़ज़ पर अजब तहरीर थी

पढ़ते पढ़ते मैं जिसे अंधा हुआ

क्या कहूँ दस्त-ए-हवा के शोबदे

रेत पर इक नाम था लिक्खा हुआ

मेरे ख़ूँ की गर्दिशें भी बढ़ गईं

उस क़बा का रंग भी गहरा हुआ

उँगलियों में उस बदन का लोच है

रंग-ओ-ख़ुशबू का सफ़र ताज़ा हुआ

रात भर जिस की सदा आती रही

सोचता हूँ वो परिंदा क्या हुआ

जागती आँखों में 'अख़्तर' अक्स क्या

मैं ने देखा क़ाफ़िला जाता हुआ

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