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अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना - अख़्तर होशियारपुरी कविता - Darsaal

अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना

अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना

पुख़्ता सड़कें ही फ़क़त राहगुज़र में रखना

ग़ैर-महफ़ूज़ समझ कर न ग़नीम आ जाए

दोस्तो! मैं न सही ख़ुद को नज़र में रखना

कहीं ऐसा न हो मैं हद्द-ए-ख़बर से गुज़रूँ

कोई आलम हो मुझे अपनी ख़बर में रखना

आइना टूट के बिखरे तो कई अक्स मिले

अब हथौड़ा ही कफ़-ए-आइना-गर में रखना

मश्ग़ले किब्र-सिनी में वही बचपन वाले

कभी तस्वीरें कभी आइने घर में रखना

बहते दरियाओं को साहिल ही से तकते रहना

और जलते हुए घर दीदा-ए-तर में रखना

कोई तो ऐसा हो जो तुम को बचाए तुम से

कोई तो अपना बही-ख़्वाह सफ़र में रखना

कोई भी चीज़ न रखना कि तआ'क़ुब में हैं लोग

अपनी मिट्टी ही मगर दस्त-ए-हुनर में रखना

जंगलों में भी हवा से वही रिश्ता 'अख़्तर'

शहर में भी यही सौदा मुझे सर में रखना

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