मैं तिरे लुत्फ़-ओ-करम का जब से रस पीने लगा
मैं तिरे लुत्फ़-ओ-करम का जब से रस पीने लगा
बस तभी से खुल के अपनी ज़िंदगी जीने लगा
ऐ बुलंदी चाहने वाले भटक मत आ उधर
मेरे शानों के सहारे अर्श तक ज़ीने लगा
हो ख़ुशी कोई भी जा कर पड़ गई तेरे गले
ग़म हो कोई भी वो आ कर बस मिरे सीने लगा
हूक कितनी सोज़ कितना टीस कितनी दिल में है
ऐ मता-ए-ज़ख़्म तू अब यूँ न तख़मीने लगा
झुरियाँ चेहरे की 'अख़्तर' ये दिखाएँगे तुझे
उम्र जब ढलने लगे घर में न आईने लगा
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