जो सकूँ न रास आया तो मैं ग़म में ढल रहा हूँ
जो सकूँ न रास आया तो मैं ग़म में ढल रहा हूँ
ग़म-ए-ज़िंदगी से कह दो कि मैं रुख़ बदल रहा हूँ
मैं बना हूँ अश्क-ए-ग़म ख़ुद तुम्हें क्यूँ मैं खल रहा हूँ
ये निकालो मेरा क़िस्सा कि मैं ख़ुद निकल रहा हूँ
तिरी बज़्म-ए-ख़ुद-ग़रज़ ने कई रंग बदले लेकिन
मैं हरीफ़-ए-शम्अ' बन कर उसी तरह जल रहा हूँ
यूँही टालते रहे तुम मिरी ख़्वाहिशों को लेकिन
मगर अब ज़रा सँभलता मैं बहुत मचल रहा हूँ
रह-ए-शौक़ में उन्हें भी लगी मेरे साथ ठोकर
वो सँभल चुके हैं लेकिन मैं अभी सँभल रहा हूँ
वही अज़्म-ए-मुस्तक़िल है रह-ए-ज़िंदगी में 'अख़्तर'
न ग़म-ए-शिकस्ता-पाई न मैं हाथ मल रहा हूँ
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