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जो सकूँ न रास आया तो मैं ग़म में ढल रहा हूँ - अख़्तर आज़ाद कविता - Darsaal

जो सकूँ न रास आया तो मैं ग़म में ढल रहा हूँ

जो सकूँ न रास आया तो मैं ग़म में ढल रहा हूँ

ग़म-ए-ज़िंदगी से कह दो कि मैं रुख़ बदल रहा हूँ

मैं बना हूँ अश्क-ए-ग़म ख़ुद तुम्हें क्यूँ मैं खल रहा हूँ

ये निकालो मेरा क़िस्सा कि मैं ख़ुद निकल रहा हूँ

तिरी बज़्म-ए-ख़ुद-ग़रज़ ने कई रंग बदले लेकिन

मैं हरीफ़-ए-शम्अ' बन कर उसी तरह जल रहा हूँ

यूँही टालते रहे तुम मिरी ख़्वाहिशों को लेकिन

मगर अब ज़रा सँभलता मैं बहुत मचल रहा हूँ

रह-ए-शौक़ में उन्हें भी लगी मेरे साथ ठोकर

वो सँभल चुके हैं लेकिन मैं अभी सँभल रहा हूँ

वही अज़्म-ए-मुस्तक़िल है रह-ए-ज़िंदगी में 'अख़्तर'

न ग़म-ए-शिकस्ता-पाई न मैं हाथ मल रहा हूँ

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