तक़दीर-ए-अज़ल आह तो भरती होगी
रूह-ए-अबदी दर्द से मरती होगी
सच ये है कि हम अहल-ए-जहाँ क्या जानें
जो ख़ालिक़-ए-आलम पे गुज़रती होगी
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आसूदगी-ए-ज़ात नहीं हो सकती
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
शबाब-ए-दर्द मिरी ज़िंदगी की सुब्ह सही
हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
वो यास कि उम्मीद कि चश्मे फूटें
पिहना-ए-आसमाँ पे हैं तारी उदासियाँ
जीने की ब-ज़ाहिर नहीं कुछ आस हमें
हयात इंसाँ की सर ता पा ज़बाँ मालूम होती है
फूल सूँघे जाने क्या याद आ गया
दिल को बर्बाद किए जाती है
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
समझता हूँ मैं सब कुछ सिर्फ़ समझाना नहीं आता