माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं
मुर्दों की तरह क़ब्र में सड़ जाते हैं
में दोस्त से बछड़ा हुआ शाएर ही सही
लोग अपने ज़माने से बिछड़ जाते हैं
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Habib Jalib
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Gulzar
Anwar Masood
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Rahat Indori
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किस क़यामत के लम्हे थे 'अख़्तर'
आता नहीं साँसों में मज़ा पीने का
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
आब-ए-दरिया में है जिस तरह रवानी पिन्हाँ
हर वक़्त नौहा-ख़्वाँ सी रहती हैं मेरी आँखें
इधर दिमाग़ हैं साकित दिलों को सकता है
कोई जंगल में गा रहा है गीत
ये आज की दुनिया भी है मरने वाली
गुलशन-ए-आरज़ू की दीद के ब'अद
क़ल्ब ज़िंदा है लफ़्ज़ हैं बे-जान
आसूदगी-ए-ज़ात नहीं हो सकती