क्या ख़ाक करम है जो मुझे तू बख़्शे
वल्लाह सितम है जो मुझे तू बख़्शे
बख़़शुंगा न मैं तेरे जहाँ को या-रब
तुझ को भी क़सम है जो मुझे तू बख़्शे
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फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे
साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं
इस तरह तबीअत कभी शैदा न हुई
हयात इंसाँ की सर ता पा ज़बाँ मालूम होती है
सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
शोले भड़काओ देखते क्या हो
सई-ए-राहत हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
ये आरज़ुएँ ये जोश-ए-अलम ये सैल-ए-नशात
जो पूछता है कोई सुर्ख़ क्यूँ हैं आज आँखें