जो हो न सका हम से वो कर जाओ तुम
इस पार से उस पार उतर जाओ तुम
हम देते रहे चर्ख़-ए-फ़लक को इल्ज़ाम
मुमकिन हो तो उस से भी गुज़र जाओ तुम
Habib Jalib
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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दूसरों का दर्द 'अख़्तर' मेरे दिल का दर्द है
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
जी को नाहक़ निढाल करते हो
तमाम उम्र मैं आँसू बहाऊँगा 'अख़्तर'
मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
सदा कुछ ऐसी मिरे गोश-ए-दिल में आती है
पुर-कैफ़ ज़ियाएँ होती हैं पुर-नूर उजाले होते हैं
वो बहर-ए-कर्ब-ओ-अलम का ख़ुलासा है यकसर
ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं
हयात इंसाँ की सर ता पा ज़बाँ मालूम होती है
इस रुपहली शराब-ए-नूरीं से
कुछ अपनी सताइश में मज़ा आता है