हरगिज़ नहीं जीने से दिल-ए-ज़ार ख़फ़ा
सीने में मचलती है तमन्ना-ए-वफ़ा
चलते रहे लेकिन न हुए ख़ाक अब तक
इक ढोंग है ऐ चर्ख़ तिरी सई-ए-जफ़ा
Javed Akhtar
Parveen Shakir
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नश्शा-ए-ख़्वाब में मदहोश है सारी दुनिया
उन में रहती थी इक हँसी बन कर
ज़ख़्म खाने के दिन गए लेकिन
चाँदनी, तारे, अब्र के टुकड़े
ग़म-ए-दिल का इलाज दुनिया में
झूमती है फ़ज़ा-ए-दश्त-ओ-जबल
आरज़ू को रूह में ग़म बन के रहना आ गया
जो दाग़ बन के तमन्ना तमाम हो जाए
नसीम, फूलों की रौनक़, खिले हुए तारे
गोशा-ए-बाग़ की मुलाक़ातें
पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
आईना-ए-निगाह में अक्स-ए-शबाब है