ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
जिसे सब आसमाँ के नाम से मौसूम करते हैं
तिरी रहमत के क़ुर्बां! इस को नीचे फेंक दे या-रब
ज़मीं वाले बहुत रातों की सर्दी में ठिठुरते हैं
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ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं
लुत्फ़ ले ले के पिए हैं क़दह-ए-ग़म क्या क्या
तश्कीक ने ईक़ान से महरूम रखा
दिल-ए-हसरत-ज़दा में एक शोला सा भड़कता है
सुनने वाले फ़साना तेरा है
दिन मुरादों के ऐश की रातें
कोई जंगल में गा रहा है गीत
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
किसी से लड़ाएँ नज़र और झेलें मोहब्बत के ग़म इतनी फ़ुर्सत कहाँ
क्या ख़बर थी इक बला-ए-ना-गहानी आएगी
इस हाथ से जो कुछ मैं लिया करता हूँ
सई-ए-राहत हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल