उन में रहती थी इक हँसी बन कर
वो मसर्रत जो अब नसीब नहीं
यही आँखें जो आज रोती हैं
कभी 'अख़्तर' हँसा भी करती थीं
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जी को नाहक़ निढाल करते हो
दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है
कोई जंगल में गा रहा है गीत
बातें करने में फूल झड़ते हैं
सुनने वाले फ़साना तेरा है
आफ़तों में घिर गया हूँ ज़ीस्त से बे-ज़ार हूँ
एक सब्र-आज़मा जुदाई है
जिन को है ऐश-ए-दिल मयस्सर, वो
हुस्न की दास्ताँ बना डाला
ये बोसीदा फटी गुदड़ी ये सूराख़ों भरी कमली
हाए क्या क़हर थी वो पहली नज़र
दूसरों का दर्द 'अख़्तर' मेरे दिल का दर्द है