सई-ए-राहत हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल
ज़ौक़-ए-नाकामी फ़साना हो गया
ग़म न मरने का न जीने की ख़ुशी
आह! ऐ 'अख़्तर' मुझे क्या हो गया?
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हुस्न की दास्ताँ बना डाला
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
मेरे रुख़ से सुकूँ टपकता है
इस हाथ से जो कुछ मैं लिया करता हूँ
कुछ फ़ैज़ तो मैं ने भी लुटाया बारे
ग़म-ज़दा हैं मुब्तला-ए-दर्द हैं नाशाद हैं
हाँ कभी ख़्वाब-ए-इश्क़ देखा था
तैरे गीतों की लय अरे तौबा
बहार आई ज़माना हुआ ख़राबाती
अब कहाँ हूँ कहाँ नहीं हूँ मैं
ये हसीन फ़ितरत के हुस्न का अनीला-पन
जीने की ब-ज़ाहिर नहीं कुछ आस हमें