रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
देखना आसमाँ के तारों का
लौह-ए-दिल पर उभार देता है
नक़्श गुज़री हुई बहारों का
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ये आज की दुनिया भी है मरने वाली
सई-ए-राहत हो गई ख़्वाब-ओ-ख़याल
जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
मिरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर'
इस हाथ से जो कुछ मैं लिया करता हूँ
आईना-ए-निगाह में अक्स-ए-शबाब है
रोए बग़ैर चारा न रोने की ताब है
माज़ी की रिवायात में गड़ जाते हैं
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
उमर भर जीने की तोहमत भी उठेगी या-रब
इक टीस कलेजे को मसलती ही रही
दिल के अरमान दिल को छोड़ गए