पिहना-ए-आसमाँ पे हैं तारी उदासियाँ
है है सुकूत-ए-शाम की प्यारी उदासियाँ
हंगामा-हा-ए-ज़ीस्त से फ़ुर्सत अगर मिले
रख लूँ उठा के दिल में ये सारी उदासियाँ
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ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं
जो पूछता है कोई सुर्ख़ क्यूँ हैं आज आँखें
कोई जंगल में गा रहा है गीत
आह! मर्ग-ए-आरज़ू का माजरा अब क्या कहूँ
पुर-कैफ़ ज़ियाएँ होती हैं पुर-नूर उजाले होते हैं
इस मईशत के साए में हमदम
पानी ले सकते हैं दरिया से मगर कूज़े में हम
बातें करने में फूल झड़ते हैं
अब वो सीना है मज़ार-ए-आरज़ू
मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में
फ़िदा-ए-मंज़िल-ए-बे-जादा हैं ख़ुदा रक्खे
फिरती हूँ लिए सोज़-ए-हयात आँखों में