पढ़ा है मैं ने फ़सानों में जिस तरह 'अख़्तर'
मिरा शगूफ़ा-ए-उम्मीद क्यूँ नहीं खिलता?
जो इश्क़ पाते हैं कसरत से हम किताबों में
वो वाक़िआत की दुनिया में क्यूँ नहीं मिलता
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इस तरह तबीअत कभी शैदा न हुई
जा रहा था मैं सर झुकाए हुए
सुनने वाले फ़साना तेरा है
सारा जहाँ है चाँद की किरनों से सीम-गूँ
क्या ख़ाक करम है जो मुझे तू बख़्शे
नसीम, फूलों की रौनक़, खिले हुए तारे
रात को बैठ कर लब-ए-दरिया
उन में रहती थी इक हँसी बन कर
हल्की हल्की फुवार के दौरान में
चर्ख़ की सई-ए-जफ़ा कोशिश नाकारा है
कोई रोए तो मैं बे-वजह ख़ुद भी रोने लगता हूँ
फ़ुग़ान-ए-ग़म सुरूद-ए-अंजुमीं मालूम होती है