मुतरिबा जब सदा-ए-साज़ के साथ
अपनी आवाज़ को उठाती है
थाम लेता हूँ दिल को मैं लेकिन
मुँह से तौबा निकल ही जाती है
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तैरे गीतों की लय अरे तौबा
कोई मआल-ए-मोहब्बत मुझे बताओ नहीं
अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं
यारों के इख़्लास से पहले दिल का मिरे ये हाल न था
आह! मर्ग-ए-आरज़ू का माजरा अब क्या कहूँ
हर वक़्त नौहा-ख़्वाँ सी रहती हैं मेरी आँखें
बुत लाखों मोहब्बत में तराशे ऐसे
इलाही उस को मोहब्बत से कुछ तअल्लुक़ है
कर दिया हाफ़िज़े में हश्र बपा
सुना के अपने ऐश-ए-ताम की रूदाद के टुकड़े
तब्अ इशरत-पसंद रखता हूँ
इलाज-ए-'अख़्तर'-ए-ना-काम क्यूँ नहीं मुमकिन